कहानी भी तो रूप बदल-बदल कर खुद को दोहरा रही है। जिसे हम रैखिक विस्थापन कहते हैं, एक लंबी आवृत्ति में वह कोणीय विस्थापन ही साबित होता है। न जाने क्यों हम गलतफहमी में जीते हैं? कभी कबीलाई सरदार के हाथों, कभी विस्तारवादी साम्राज्यवाद के हाथों और कभी प्रौद्योगिकी के प्लेयर के हाथों, सभ्यता मार ही तो खा रही है।
हूँ.....ख्याल अच्छा है !
जवाब देंहटाएंकहानी भी तो रूप बदल-बदल कर खुद को दोहरा रही है। जिसे हम रैखिक विस्थापन कहते हैं, एक लंबी आवृत्ति में वह कोणीय विस्थापन ही साबित होता है। न जाने क्यों हम गलतफहमी में जीते हैं? कभी कबीलाई सरदार के हाथों, कभी विस्तारवादी साम्राज्यवाद के हाथों और कभी प्रौद्योगिकी के प्लेयर के हाथों, सभ्यता मार ही तो खा रही है।
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