खड़ा हूँ मैं सदियों से. पहाड़-सा. खिरता हुआ.
देखता हुआ,चारों सिम्त.घूमता हुआ धरती के साथ.
फैली हुई घाटियों की आवाज पर और खिरता हुआ मैं सोच
रहा,कि गिरुं;या धसुं .चलने के मेरे पाँव दब गए
हैं ;अपने वजूद के नीचे.मैं हाथों के बल चलने की कला पर हाथ आजमा
रहा हूँ.अपने भीतर भरता हुआ खोखलापन।
कई बार प्रकृति से बाहर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की हर बार नाकाम ! शुक्र है तुम उसमे ही ख़ुद को खोज रहे हो !
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