शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
दिन की बकवास खूब सुबह से ; हुश्त
अब ऐसा काम करता हूँ।
सुबह को हो जाने देता हूँ.
राह न देखे वो और हो जाए
मैंने बाहर ताला डलवा दिया है,
अपने बाहर होने का एहसास
भीतर होने की हकीकत
सुबह को रोक सकने की ताकत की ग़लतफ़हमी
के बीच मैं सुनता हूँ शोर
सुबह उठ कर घुमने जाने वालों का
रात और बच्चों की नींद तोड़ते ये
स्वस्थ शरीर घंटे दो घंटे पहले
से शुरू कर देते हैं फैलाना
शब्द-कीचड़ .--- सुबह का कत्ल
स्वस्थ संसार की कीमत पर होने
देने की कोशिशों को रोकने के
लिए मैं निकल पड़ा हूँ
अल-सुबह चहचहाती चिडिया के वेश में ।
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मेरे बारे में
- जय श्रीवास्तव
- उज्जैन, मध्यप्रदेश, India
- कुछ खास नहीं !
सुंदर भावनाएं हैं !
जवाब देंहटाएंहम उस भीड़ में खड़े हैं जहाँ कोई कुछ समझ नहीं सकता !
जवाब देंहटाएंतुम्हारे लिखने की खूबसूरती देख पाना सबके बस की बात
नहीं है !