मंगलवार, 5 जनवरी 2010

लो वो गया अकेला गुबार सा गुबार सा

इस तरफ से इस बार कोई बार-बार गुजरा है। मानो आखिर बार गुजरना हो। गुस्सा था खुद पर उसको। निर्णय उसके सारे ही तो गलत थे। ठंड की सोचता था, बारिश हो जाती। ओले गिरते। नींद आने को होती, कुण्डी खटखटा देता कोई। बड़ा होने का सोचा था । किसी दिन देर से घर आने का। घर ही में गुम होने का। कुरूप दिखने का। गुस्सा ठंडा होने का। पंक्चर नहीं है,पर हवा टिकती भी तो नहीं है। साइकल में घंटी छोड़ सब बजता । बार-बार गुजरा है। इस बार कोई।

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