मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

मुझ से कुछ कहता था बिखर कर बादल

ऐसा कम होता था। कि मैं निकलूं और कहीं भटक न जाऊ। मैं किसी नई-सी जगह पर पहुँच जाता था। लोग भी नए मिलते । ख़ामोशी भी नई होती। घाटियाँ कुछ और हरी ,और राहत कुछ और ज्यादा।गुना-भाग का निशान न होता। एक हँसी ,अचानक कहीं से सुनाई और दिखाई देती। भटकने से ज्यादा मिल गया था मैं. कोई फ़िर गा रहा था। क्रमश:

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