सोमवार, 28 सितंबर 2009

पलटता तो सोचता ही रह जाता

एक दीवार रोज बना जाता है कोई।----------। सूर्योदय नहीं दीखता। ---------। चादर पर सिलवटें छोड़ता हुआ .खिड़की से निकल पड़ता मुंह धोने ,और उँगलियों से कंगी करता पार करता हुआ ख़ुद से ख़ुद को , भिड जाता हूँ । ताजी दीवार तोड़ देने की आदत साथ देती है।

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