कभी -कभी रुई भी चुभती है। हवा पहनी जाती है। और अपनी तरह का ये वो सिलसिला है,जो अपना एक समूह चाहता है। ये परवाह करता है । नए ,थोड़े पुराने जुडाव ,के समांतर अपना वजूद रखता है। आदत के मारे हम जैसे ,उखड़ ही तो जाते हैं, और,और गिर पड़ते हैं अपने ही पांवों पर। हमारा शुद्द वजन हम नहीं होते। विपरीत दिशाओं से पड़ने वाले दबाव भी शामिल हैं।
वाह क्या बात कही है ? जब हम विशुद्ध मन से निकली आवाज को दुनिया kee मशीन में पके दिमाग से दबाते चल रहे होते हैं, तो हमें कुछ गड़ता है। शायद तब मन की आवाज चुभती-रूई ही तो होती है और यह दिमाग वो हवा, जिसे हम तब पहन लेते हैं। अपने ही पांवों पर गिरकर हम हम नहीं होते शायद तब हमारी कोई बुनियादी वजूद भी नहीं होती और हम भारहीन होकर रह जाते हैं।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चिंतन। धन्यवाद।