बुधवार, 24 जून 2009

झील ने थपकी दे सुला लिया मुझे अपनी किशमिशी छाती पर

डल झील --शिकारा आगे बढ़ रहा है। फरेन में लिपटा कश्मीर ठंडा कर रहा है। मेरी खुली उँगलियों को। सबको। चप्पू चलने की गति मुझे नियंत्रित कर रही है। अब तक जीने की थकान---कुल थकान झील में ,उसकी हरियाली में जाती हुई ,बिदा होती हुई दिख रही है। शिकारे के हिचकोले के साथ निथरता हुआ , मैं पहाडों का अभिवादन कर रहा हूँ । मस्तक-मुक्त मैं नत हूँ।

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