सोमवार, 18 मई 2009

चौराहों के चौराहे चारों सिम्त

हम लटक जाते हैं उन विचारों पर जो हमारे मस्तिष्क में आते हैं। कुछ दिन तक चलते हैं एक निर्णय के साथ फिर दुसरे विचार पर लिए निर्णय के साथ हो जाते हैं। निर्णयों के गट्ठर और ढेर परिस्थितियों के चौराहे पर हमें धकेल देते हैं। अपनी उम्र के कुछ बरस किसी निर्णय पर चल कर निकाल दिए, कुछ बरस किसी और निर्णय पर अटक कर। -----------------हम अपने हिसाब से , भले ही वो ग़लत हो आगे , न निर्णय ले पाते हैं न चल पाते हैं। इस कारण हताशा का पहाड़ भी हमें छोटा लगता है। रेल की पटरी हमें बुलाती है। कुंए और नदी खींचते हैं। --------।

यहाँ पर मैं उनको बचा सकता हूँ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत ख्याल ! साफ सुथरा नज़रिया ! जिंदगी के मायने यूं भी होते है ,हर कोई तुम्हारी तरह कह नहीं सकता ! इसीलिए तुम बेहद खास हो मित्र !

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