शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
लबों से नाजुक हम ,हमारे ख्याल ,लेकिन शायद, तुम्हारे कारन
एक मकबरे सी , निहायत खामोश मेरी सोच। थके मन का विचार लुटी बादशाहत का वारिस.मैं लेकिन हूँ कहाँ .तुमने जैसा बना दिया वैसा का वैसा ही हूँ.जब चाहाफोड़ लिया, अखरोट सा .पिघला ही छोड़ दिया कभी तो. ये पर्वतों से आईने,मुझे नीलकंठ बना देते. मैं बजते हुए ड्रम पर रखा थिरकता हुआ कंकर.धरती पर बिखरे बड़े- २पत्ते,हवा से उड़ते,टूटके और बिखरते ,मेरी तरह.तन्हाइयों में नहाया मैं अनसुलझे सवालोंकी कड़ी धूप में कर रहा हूँ शर्मसार कायनात को. टूटकर करते हैं प्यार, जब भी करते हैं.यहीहोंसला, यही वजह,कि झेल लेते हैं पूरी नदी, या पूरा पहाड़,-------या खोल देते हैं पत्ते अपने सारेकिसी के भी सामने.बिछे हुए हैं हम अपनी ही राह मैं ,अंगारे बन के, कोई हमें बातों से सहलाये ना.दिनों को तितली सा बनाना,अपने लिए हमें आता है.ये सिफत चाहो तो सीख लो हमसे.
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