बुधवार, 11 मार्च 2009

निराशा का बर्फीला पहाड़ तोड़ता हूँ

मैं देख रहा हूँ,सामने से आवाज दे रहे हैं लोग.बुला रहे हैं मुझे.मैं जिस तरह से उनके लिए लगा हूँ वो उन्हें पता नहीं चल रहा .हथेली से बाहर आकर लकीरों, तुम जुट जाओ उदय के लिए .सबके उदय के लिए.जुट गया हूँ अब आके सामने,तुम्हारे. तुमसे आगे मैं लगा हूँ,देख लो चाहो तो.

1 टिप्पणी:

  1. कई दिनों बाद ..............फिर से ...............
    तुमने लकीरों को शब्द और शब्दों को ध्वनि में कायांतरण के लिए मजबूर किया है ! तुम बहुत अच्छे से जानते हो ब्रम्हांड कैसे बनते हैं !

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