सोमवार, 19 जनवरी 2009

दरख्त और आवाजें और मैं हैं अब साथ

डाकिया उन दिनों खूब भाता था । चिट्ठियों का इंतजार रहता । सुबह -दोपहर। डाक जिस दिन नहीं आती, दिन बीत गया,मान लेते। इंतजार के कारकों की शक्ल बदली है। शिद्दत वही । अब हर अपनी और आती शै गहरी तसल्ली देती है। सूखे पत्ते , तिनके, कागज --अब मेरी और यही आते हैं। और,साथ यही रहते है।

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