ठण्ड के दिन गए.वैसे इधर वे बुझे-२ ही रहे.हमारा असर , इस कदर इन पर?मौसम से नही,सूखी हुई ही शाख हैं हम. बर्हम्मेश.जिसने हमें देखा ,बात की जिससे,वो हुआ हमसा । इस गाने की राग बड़ी दर्दीली है.सन्नाटे में गाओ तो बिलख पड़े खामोश-सी आहटें.किसी आंचल के साये में गाओ,तो,वो तार -तार हो जाए.मैं हरे पत्तों के माथे पर सूखने की शुरुआत हूँ.हाँ,कभी –कभार पत्थरों की नदी में सोई हुई उम्मीद भी हूँ।
बहुत खूब !
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