बुधवार, 14 जनवरी 2009

अपने से दूर करती हो क्या खूब उडाती हो

डोर थी । पतंग थी । आशाओं की हवा न थी। ----डोर थी। पतंग थी। वो उत्साह, वो बात न थी। वैसे भी सारी पतंगें मेरे ही सीने पर उड़ रहीं थीं। मैं ही कट रहा था। मैं ही फट रहा था। गिरता -पड़ता जैसा भी था , मैं उड़ रहा था। 'थी उड़ती हुई पतंग, तुम्हारे हाथ में , थी कटी हुई पतंग मेरे हाथ में '

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