सोमवार, 16 नवंबर 2009

दीवानों सा था वो अपने जेहन में

गिरते जाते शब्दों में कहीं कोई अर्थ देने वाला सम्बन्ध बनता जाता है । जाने अनजाने । तिलिस्म बनता है। उसमे प्रवेश के बाद परंपरागत अर्थ आपस में खुसुर- पुसुर करने लगते हैं। अंधेरे में ऑंखें फाड़-फाड़ कर देखते हैं। प्रतिध्वनियाँ शब्द कोष खोल देती हैं। समय के पार अर्थ गोलाकार लेते हुए अपना संसार बनाते हैं। ख़ुद के पार हो चुका तीर ही होगा, जो मुझे चुभने लगा है।-- क्रमशः --।

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