मंगलवार, 13 जनवरी 2009

घिस गए आते -आते खाब और और कर गए नींद मेरी घायल

ऐ मेरे नए खाब , तू मेरी नींद का इंतजार न कर। तू आ। मुझे सुन। नींद के खाब न पूरे होते-----न आराम देते अब। याद आते ही चुभने लगतेहैं। किसी की नींद से गुम ,ये पता पूछते हैं मुझ से किसी की भरोसेमंद नींद का। मैं अपना नाम कैसे लेता। मैं ख़ुद किसी की नींद का टुटा हुआ हिस्सा हूँ। गड्ड -मड्ड हो जाऊँ, किसी खाब से, ये बांहें उठी हुई सदियों से हैं बस इसीलिए।

1 टिप्पणी:

  1. प्रिय जय,
    चेहरों के फ़लक पे टांकते होंगे ज़ज्बात , वो लोग !
    पर तुम ... .... तुम तो !
    गढ़ते हो , बुनते हो , जड़ते हो , दमकते हुए ख्याल !
    हवाओं के सीने पर , कलम की नोक से !

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